विश्वकर्मा जयंतीः देवताओं के शिल्पी को समर्पित उत्सव...

                गूंज़-ए-झाबुआ - ऋतिक विश्वकर्मा

विश्ववकर्मा जयंती सनातन परंपरा में पूरी धूमधाम और हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है। इस दिन औद्योगिक क्षेत्रों, फैक्ट्रियाे, लोहे, मशीनों तथा औज़ारों से संबंधित कार्य करने वाले वाहन शोरूम आदि में विश्वकर्मा की पूजा होती है। इस अवसर पर मशीनों और औज़ारों की साफ-सफाई आदि की जाती है और उन पर रंग किया जाता है। विश्वकर्मा जयंती के अवसर पर ज्यादातर  कारखाने बंद रहते हैं और लोग हर्षोल्लास के साथ भगवान विश्वकर्मा की पूजा करते है। विश्वकर्मा हिंदू मान्यताओं और धार्मिक ग्रंथों के अनुसार देवताओं के शिल्पी के रूप में जाने जाते हैं।

तिथि : भगवान विश्वकर्मा की जयंती वर्षा ऋतु के अंत और शरद ऋतु के शुरू में मनाए जाने की परंपरा रही है । ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इसी दिन सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करते हैं । चूंकि सूर्य की गति अंग्रेज़ी तारीख से संबंधित है , इसलिए कन्या संक्रांति भी प्रतिवर्ष 17 सितंबर को पड़ती है । जैसे मकर संक्रांति अमूमन 14 जनवरी को ही पड़ती है, ठीक उसी प्रकार कन्या संक्रांति भी प्राय 17 सितंबर को ही पड़ती है । इसलिए विश्वकर्मा जयंती भी 17 सितंबर को ही मनायी जाती है । 

मान्यता : ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में जितनी भी राजधानियां थीं , वे सभी विश्वकर्मा द्वारा ही निर्मित की गई थीं । यहां तक कि सतयुग का स्वर्ग लोक , त्रेता युग की लंका , द्वापर युग की द्वारिका और कलयुग का हस्तिनापुर आदि विश्वकर्मा द्वारा ही रचित थे । कहा जाता है कि सुदामापुरी तत्क्षण रचना के निर्माता भी विश्वकर्मा ही थे । इसके अतिरिक्त जितने भी पुरातन सिद्ध स्थान हैं , जो भी मंदिर और देवालय हैं , जिनका उल्लेख शास्त्रों और पुराणों में है , उनके निर्माण का भी श्रेय विश्वकर्मा को ही जाता है । इससे यह आशय लगाया जाता है कि धन - धान्य और सुख - समृद्धि की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों को भगवान विश्वकर्मा की पूजा करना आवश्यक और मंगलदायी है । विश्वकर्मा को देवताओं के शिल्पी के रूप में विशिष्ट स्थान प्राप्त है । 

कथा : भगवान विश्वकर्मा की महत्ता को सिद्ध करने वाली एक कथा भी है । कथा के अनुसार काशी में धार्मिक आचरण रखने वाला एक रथकार अपनी पत्नी के साथ रहता था । वह अपने कार्य में निपुण तो था , परंतु स्थान - स्थान पर घूमने और प्रयत्न करने पर भी वह भोजन से अधिक धन प्राप्त नहीं कर पाता था । उसके जीविकोपार्जन का साधन निश्चित नहीं था । पति के समान ही पत्नी भी पुत्र न होने के कारण चिंतित रहती थी । पुत्र प्राप्ति के लिए दोनों साधु - संतों के यहां जाते थे , लेकिन यह इच्छा पूरी न हो सकी । तब एक पड़ोसी ब्राह्मण ने रथकार की पत्नी से कहा कि तुम भगवान विश्वकर्मा की शरण में जाओ , तुम्हारी अवश्य ही इच्छा पूरी होगी और अमावस्या तिथि को व्रत कर भगवान विश्वकर्मा महात्म्य को सुनो । इसके बाद रथकार एवं उसकी पत्नी ने अमावस्या को भगवान विश्वकर्मा की पूजा की , जिससे उसे धन - धान्य और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और वे सुखी जीवन व्यतीत करने लगे ।

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