मजदूर कर रहे दूसरे राज्याें की ओर पलायन, गांव में नहीं मिल रहा रोजगार
फाईल फाेटाे
झाबुआ। जिले में रोजगार के अभाव में मजदूर महानगरों एवं दूसरे पड़ाेसी राज्याें की ओर पलायन करने को मजदूर मजबुर है। गांव में रोजगार का अभाव और बारिश न होने के कारण के साथ दाे साल से काेविड-19 के सख्ती से त्रस्त गरीब मजदूर वर्ग के लोग पलायन कर रहे हैं। महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना के तहत मजदूरों को गांवों में काम नहीं मिल रहा है। मजदूरों को गांव से पलायन करना पड़ रहा है। ग्रामीण मजदूरों को गांव में ही रोजगार मिल सके। इस उद्देश्य से मनरेगा कानून बनाया था। जिसके तहत वर्ष में कम से कम 100 दिन गांव के मजदूरों को रोजगार दिया जाना अनिवार्य किया था। काम नहीं देने की दिशा में बेरोजगारी भत्ता देने का प्रावधान भी था। ग्रामीण अंचलों से प्रतिदिन सैकड़ों मजदूर अपने घरों में ताला लगाकर रोजी रोटी के लिए पड़ाेसी राज्य गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान एवं इंदाैर, भाेपाल जैसे दूर शहराें की ओर पलायन कर रहे हैं। क्षेत्र से महानगर की ओर पलायन करने वालों मजदूरों के समूह को बस स्टैंड देखा जा सकता है। सरकार द्वारा भले ही ग्रामीणों को उनके ही गांव में सौ दिन का रोजगार देने के लिए 2005 में मनरेगा योजना लागू की गई थी ताकि गांव के लोगों को गांव में मनरेगा योजना के तहत रोजगार उपलब्ध कराया जा सके और लोगों को रोजी रोटी के अभाव में महानगरों की ओर न जाना पड़े, लेकिन हालात इतने खराब है कि एक तो ग्राम पंचायतों में मजदूरों को रोजगार नहीं मिल रहा है, निर्माण कार्य बंद पड़े हैं, लाॅकडाउन के दंश झेल कर बचत तक समाप्त हाे गई है, अब उनको रोजगार नहीं मिल रहा है जिससे मजदूर पलायन को मजबूर है। जिलें के थांदला, पेटलावद, राणापुर, रामा विकासखण्ड के तकरीबन सभी ग्राम पंचायतों में रोजगार मुल्क कार्य कई दिनाें से बंद पड़े हुए हैं यदि राेजगार प्रदान करने जैसा कार्य भी हाेता है ताे मजबूर मजदूर से ना करवाकर अत्याधुनिक मजदूराें से करवाकर फर्जी राेस्टर भरकर कागजाें पर मजदूराें काे राेजगार देना बताकर मजदूराें काे पलायन करने पर मजबूर कर दिया जाता है।
झाबुआ। जिले में रोजगार के अभाव में मजदूर महानगरों एवं दूसरे पड़ाेसी राज्याें की ओर पलायन करने को मजदूर मजबुर है। गांव में रोजगार का अभाव और बारिश न होने के कारण के साथ दाे साल से काेविड-19 के सख्ती से त्रस्त गरीब मजदूर वर्ग के लोग पलायन कर रहे हैं। महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना के तहत मजदूरों को गांवों में काम नहीं मिल रहा है। मजदूरों को गांव से पलायन करना पड़ रहा है। ग्रामीण मजदूरों को गांव में ही रोजगार मिल सके। इस उद्देश्य से मनरेगा कानून बनाया था। जिसके तहत वर्ष में कम से कम 100 दिन गांव के मजदूरों को रोजगार दिया जाना अनिवार्य किया था। काम नहीं देने की दिशा में बेरोजगारी भत्ता देने का प्रावधान भी था। ग्रामीण अंचलों से प्रतिदिन सैकड़ों मजदूर अपने घरों में ताला लगाकर रोजी रोटी के लिए पड़ाेसी राज्य गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान एवं इंदाैर, भाेपाल जैसे दूर शहराें की ओर पलायन कर रहे हैं। क्षेत्र से महानगर की ओर पलायन करने वालों मजदूरों के समूह को बस स्टैंड देखा जा सकता है। सरकार द्वारा भले ही ग्रामीणों को उनके ही गांव में सौ दिन का रोजगार देने के लिए 2005 में मनरेगा योजना लागू की गई थी ताकि गांव के लोगों को गांव में मनरेगा योजना के तहत रोजगार उपलब्ध कराया जा सके और लोगों को रोजी रोटी के अभाव में महानगरों की ओर न जाना पड़े, लेकिन हालात इतने खराब है कि एक तो ग्राम पंचायतों में मजदूरों को रोजगार नहीं मिल रहा है, निर्माण कार्य बंद पड़े हैं, लाॅकडाउन के दंश झेल कर बचत तक समाप्त हाे गई है, अब उनको रोजगार नहीं मिल रहा है जिससे मजदूर पलायन को मजबूर है। जिलें के थांदला, पेटलावद, राणापुर, रामा विकासखण्ड के तकरीबन सभी ग्राम पंचायतों में रोजगार मुल्क कार्य कई दिनाें से बंद पड़े हुए हैं यदि राेजगार प्रदान करने जैसा कार्य भी हाेता है ताे मजबूर मजदूर से ना करवाकर अत्याधुनिक मजदूराें से करवाकर फर्जी राेस्टर भरकर कागजाें पर मजदूराें काे राेजगार देना बताकर मजदूराें काे पलायन करने पर मजबूर कर दिया जाता है।
*बड़ी संख्या में रहते है बच्चें शिक्षा से वंचित*
अधिकांश गरीब आदीवासी मजदूर परिवार के लोग अपने बच्चों को साथ लेकर जाते हैं। इन मजबूर मजदूरों के पलायन के कारण उनके बच्चे स्कूल शिक्षा से वंचित हो रहे हैं। सरकारी स्कूलों में शासन के द्वारा बच्चों को भोजन उपलब्ध कराए जाने की व्यवस्था है। परन्तु जब गरीब मजदूर परिवार के सभी लोग बाहर जा रहे हैं तब बच्चों को घर पर कैसे छोड़ सकते हैं। घर पर केवल बूढ़े लोग रह जाते हैं जो काम करने के लायक नहीं है। ऐसे मजदूर अपने बच्चो को कैसे घर पर छोड़ सकते हैं। जिससे ज्यादातर परिवार अपने साथ छोटे बच्चाें को भी ले जाते हैं इससे उनकी पढ़ाई ताे छूट ही जाती है साथ ही जिले में शिक्षा का स्तर बढ़ने के बजाय शाला त्यागी बच्चाें की संख्या भी बढ़ रही है और यह पलायन मासूम बच्चाें का बचपन तेज रफ्तार से छिन रहा है।
*किसी को काेई नही चिंता*
लगातार साल दर साल तेजी से बढ़ता यह पलायन पर प्रशासन और नेताओं के लिए कभी गंभीर चिंता का विषय नहीं रहता। चिंता ताे नेताओं व प्रशासन पर सिर्फ तब दिखाई देती है जब चुनाव आता है, तब नेताओं काे वाेट और प्रशासन काे वाेटर की चिंता रहती है। झाबुआ आदिवासी बाहूल्य जिले में अरबों-खरबाें रुपयें विकास के नाम पर व्यय हाे जाने के बावजूद भी आदिवासियों को रोजगार जैसी काेई याेजना क्रियानवयन नहीं हाेकर राेजगार ना मिलना चिंता का विषय है। गाैरतलब है कि जिला प्रशासन और जनप्रतिनिधियों ने इसका चिंतन कभी नहीं किया। राेजगार और गरीबी के मुद्दाें पर सिर्फ चुनावों में सबसे ज्यादा बात की जाती है। मजदूरों की परेशानी ना तो नेता समझ रहे है और न ही अधिकारी।
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