छत गिरने से घायल हुई मासूम छात्राएं और शिक्षक, सवालों के मलबे में दब गई व्यवस्था...

✍🏻 ऋतिक विश्वकर्मा, एमपी जनमत


झाबुआ/मेघनगर। जिस स्कूल की छत के नीचे बैठकर बच्चों को भविष्य गढ़ना था, वहीं से गिरी पलस्तर की बला, और तीन मासूम बच्चियों के सिर लहूलुहान हो गए। शिक्षक भी घायल हुए, जो रोज़ उन्हें जीवन का पाठ पढ़ाते है। यह दर्दनाक घटना जिले के मेघनगर ब्लॉक के मदारानी संकुल के उमरादरा गांव के डुक्का फलिया प्राथमिक शाला में हुई है।

बारिश की फुहारें जब राहत बनकर आनी चाहिए थीं, तब वे स्कूल की जर्जर छत के लिए आफत बन गईं। गुरूवार काे बच्चे रोज की तरह कक्षा में पढ़ाई कर रहे थे, कुछ होमवर्क दिखा रहे थे। तभी अचानक छत का पलस्तर भरभराकर गिरा और बच्चों की चीखों से सन्नाटा टूट गया।

घटना में तीन छात्राएं और एक शिक्षक घायल हो गए। वे बच्चियां जो आज अक्षर ज्ञान लेने आई थीं, उन्हें सिर पर पट्टियां बांधकर थांदला अस्पताल पहुंचाया गया। शिक्षक जो 'गुरु' की भूमिका निभा रहा था, खुद जख्मी होकर अस्पताल की शैय्या पर लेटे है।


गंभीर सवाल, जो मलबे में दबे हैं...

यह कोई पहली घटना नहीं है। जिले में दर्जनों स्कूल ऐसे हैं जिनकी दीवारें और छतें महज भरोसे के सहारे टिकी हैं। शासन द्वारा हर साल स्कूल भवनों के रखरखाव के लिए लाखों रुपए जारी किए जाते हैं, लेकिन कागजी मरम्मत के बाद भी भवन ऐसे हैं जैसे किसी और हादसे का इंतज़ार कर रहे हों।

घटना के बाद प्रशासन ने जरूर फुर्ती दिखाई, एसडीएम रितिका पाटीदार मौके पर पहुंचीं और निर्देश दिए कि जब तक भवन की स्थिति पूरी तरह सुरक्षित न हो, वहाँ शिक्षण कार्य न किया जाए। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि पहले ही इन भवनों को "खतरनाक" घोषित क्यों नहीं किया गया...?


क्या आदिवासी बच्चों की जान की कोई कीमत नहीं...?

ग्रामीण और आदिवासी बहुल क्षेत्रों में स्थित सरकारी स्कूलों की हालत हमेशा उपेक्षा की शिकार रही है। क्या इन बच्चों की जान इतनी सस्ती है कि व्यवस्था हर बार तब जागती है जब कोई हादसा हो जाए?
हर घायल बच्ची की आँखों में दर्द से ज़्यादा सवाल थे – "हमारा क्या कसूर था...?"


बच्चाें की जुबानी हादसे की तस्वीर...

कक्षा में उपस्थित बच्चाें ने बताया की वें क्लास में पढ़ाई कर रहे थे, कुछ होमवर्क दिखाने आए थे तभी अचानक छत से पलस्तर गिरा। एक पल को समझ ही नहीं आया कि क्या हो रहा है। जाे घायल हुए उन्हें तुरंत अस्पताल पहुंचाया गया।


व्यवस्था को जगाना होगा, वरना अगली खबर जनहानि की होगी...

आज तो सिर्फ प्लास्टर गिरा, कल को पूरी छत गिर गई तो...? क्या हम हर बार “गनीमत रही कि कोई जनहानि नहीं हुई” लिखते रहेंगे...?

शिक्षा का अधिकार हर बच्चे का अधिकार है, लेकिन क्या सुरक्षित भवन उसमें शामिल नहीं...? आज घायल बच्चियों की पट्टियाँ केवल उनके जख्म नहीं छुपा रहीं, वे पूरी व्यवस्था के घाव भी उजागर कर रही हैं।


अब सवाल ये नहीं कि हादसा क्यों हुआ, सवाल ये है कि ऐसे हादसों को रोका क्यों नहीं गया।
शासन को चाहिए कि तुरंत जिले के सभी जर्जर भवनों की सूची बनाए, मरम्मत सुनिश्चित करे और जब तक निर्माण पूरा न हो, वैकल्पिक स्थानों पर कक्षाएं संचालित की जाएं।


जिम्मेदारी सिर्फ कागज में नहीं, जमीन पर दिखनी चाहिए – क्योंकि शिक्षा का सपना, किसी घायल सिर पर नहीं लिखा जाता।


📷 घायल छात्राओं और शिक्षक की तस्वीरें और पीड़ा प्रशासन से सवाल करती हैं, क्या अगली बार कोई और मासूम और शिक्षक इसकी कीमत चुकाएंगे..?



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