झाबुआ की मिण्डल पंचायत में घरवाली सरकार... पंचायत भवन वीरान... सरपंच का घर बना जनसेवा केंद्र... सचिव से मिलना हो तो सरकारी कार्यक्रम में पहुंचो...
✍️ ऋतिक विश्वकर्मा (स्वतंत्र पत्रकार)
झाबुआ जिले की मिण्डल ग्राम पंचायत में लोकतंत्र की बुनियादी इकाई ‘पंचायती राज’ इस कदर ध्वस्त हो चुका है कि जनता को अपने ही कामों के लिए पंचायत भवन नहीं, सरपंच के घर जाना पड़ता है। और सचिव से मिलने के लिए सरकारी कार्यक्रमों की तलाश करनी पड़ती है।
यह पंचायत, जो जिला मुख्यालय से सटी हुई है - नगर पालिका की सीमा समाप्त होते ही प्रमुख मार्ग पर स्थित है - वहां हालात देखकर कोई भी सवाल कर सकता है कि क्या यही है स्वशासन...?
ग्रामीणों की चुप्पी में डर है, और डर के पीछे दबाव...
करीब 10-12 ग्रामीणों से जब बात की गई, तो उन्होंने नाम न छापने की शर्त पर कहा...
जब से नई सरपंच बनी हैं, पंचायत तो जैसे ताले में ही चली गई है। कभी खुलती है तो बस किसी वीआईपी दौरे में। बाकी सारे काम सरपंच के घर जाकर कराने पड़ते हैं। नाम मत छापना, वरना सरपंच का बेटा और परिवार झगड़ने आ जाएगा। फिर हमारा काेई काम हाेगा ताे भी नहीं करेंगे...
यह डर बताता है कि गांव में पारदर्शिता नहीं, बल्कि एक तरह की घरेलू तानाशाही हावी है।
काम करवाना है...? तो सरपंच के घर जाइए...
गांव के अधिकांश लोगों का यही अनुभव है - चाहे नल-जल की शिकायत हो, पेंशन आवेदन या जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र... हर काम के लिए पंचायत नहीं, सरपंच के घर चक्कर लगाओ।
सरपंच के घर जाओ, विनती करो, तब कहीं जाकर कोई कागज हिलेगा...
यह हाल है मिण्डल ग्राम पंचायत का, जो झाबुआ जनपद की सीमाओं में आने के बावजूद जनता दरबार से कोसों दूर है।
पंचायत भवन का हाल - न कार्यशैली, न उपस्थिति, बस एक चौकीदार की नींद...
8 जुलाई को जब हम वापस पंचायत भवन पहुंचे, तो दरवाज़े पर ताला नहीं था - सोचा अंदर झांककर देखा जाए।
चैनल गेट पर ताला नहीं था ताे खोला, पर्दा हटाया - तो भीतर का दृश्य प्रशासन की जमीनी हकीकत को बेपर्दा कर रहा था। अंदर न तो कोई जनप्रतिनिधि, न सचिव... बल्कि पलंग पर आराम करते एक चौकीदार मिले।
सभा टेबल पर कुर्सियाँ उलटी पड़ी थीं, कुछ सामान अस्त व्यस्त और धूल की परतें थीं, और पूरी जगह में एक अजीब-सी वीरानी पसरी थी - जैसे यहां महीनों से कोई 'लोकसेवा' नहीं हुई हो।
सचिव से बातचीत - ताला नहीं है, तो बंद कैसे कह सकते हो...?
वहीं पर चस्पा सूची से सचिव दिलीप डावर का नंबर निकालकर संपर्क किया गया। बातचीत कुछ इस प्रकार हुई...
- सचिव: पंचायत पर आज तक ताला नहीं लगा। फिर बंद कैसे बोल सकते हो?
- रिपोर्टर: ठीक है, ताला नहीं लगा, लेकिन आप मिलते कब हो...? कई बार आवेदन लेकर आया हूं, लेकिन आप कभी भी नहीं मिले।
- सचिव: नाम बताओ किसने कहा पंचायत नहीं खुलती...?
- रिपोर्टर: लोग नाम बताने को तैयार नहीं हैं।
- सचिव: नाम बताओ (जिद करते रहे)
- रिपोर्टर: अब बताओ आवेदन कब और कहां दूं...?
- सचिव: कल जनजातीय विभाग का कार्यक्रम है बाड़कुआ पर, वहीं सुबह 11 बजे आ जाना, दे देना।
यानी पंचायत का काम पंचायत में नहीं, किसी दूसरे शासकीय कार्यक्रम में किया जाएगा... और जब आवेदन पर ओसी (ऑफिसियल सर्टिफिकेशन) मांगा गया तो बोले...
हजाराें कागज साइन करता हूं, साथ में ही रखता हूं, जैसा चाहिए वैसा दे दूंगा ओसी...
सवाल बहुत हैं, जवाब अभी तक एक भी नहीं...
- क्या पंचायत भवन केवल नाम का रह गया है...?
- क्या सरपंच का घर ही पंचायत का केंद्र बन गया है...?
- सचिव का कोई तय समय नहीं, कोई सार्वजनिक नंबर नहीं - ये कैसा जवाबदेह प्रशासन...?
- क्या अब आवेदन देने के लिए भी हमें कार्यक्रमों की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी...?
- जिला प्रशासन इस सब पर चुप क्यों है, जबकि यह पंचायत नगर पालिका क्षेत्र से सटी हुई है...?
प्रशासन से आग्रह या चुनौती...?
मिण्डल पंचायत का यह मामला शासन-प्रशासन दोनों के लिए एक आईना है।
अगर यह पंचायत जिला मुख्यालय से चंद कदमों की दूरी पर ऐसी है - तो दूरदराज़ की पंचायतों की स्थिति का अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है।
नोट - यह रिपोर्ट जनहित में प्रकाशित की जा रही है। यदि प्रशासन चाहे, तो इस पंचायत की स्थिति की वास्तविकता सिर्फ 2 घंटे के औचक निरीक्षण में सामने आ सकती है। लेकिन इसके लिए इच्छाशक्ति और निष्पक्षता होनी चाहिए - न कि सिर्फ दौरे और फोटो की राजनीति।
हम आपकी आवाज काे प्रशासन के बीच रखने की ताकत रखते है, यदि आपके पास भी है काेई खबर ताे हमसे संपर्क करें... खबर व सूचना के लिए हमें संपर्क करें...
एमपी जनमत 9826085033
माेबाईल पर खबर पाने से लिए बटन दबाए और जुड़े हमारे व्हाट्सएप ग्रुप से.. 🔘🔘🔘
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें